इंसान को इंसान से प्यार नहीं होता, प्यार होता है उन्हें सिर्फ अपने स्वार्थ से,
जिसे तुम अपना समझते हो वही तुम्हें अपने स्वार्थ के लिए घर से निकाल सकते हैं, तुम्हारा जीना मुश्किल कर सकते हैं, घुटन पैदा करते हैं,
तुम्हें कोई नहीं समझ सकता, किसी को तुम्हें समझने में कोई दिलचस्पी नहीं, ना तुम सरकारी नौकरी हो ना जमीन का टुकड़ा,
दुनिया हिंसा, नफरत और स्वार्थ से भरी है,
जहाँ मन को शुद्ध करने का काम चल रहा हो वहाँ भी घटिया लोग मिल जाते हैं, जो छाती चौड़ी करके अपनी तुच्छ मान्यता का प्रदर्शन करते मिल जाएंगे,
आत्मविश्वास के साथ कामना से ग्रसित आँखों से लोगों में भेद करते दिख जायेंगे, और उन्हें अपने भौंडेपन का जरा भी एहसास होता ना दिखेगा,
इंसान को लड कर अपना महत्व हासिल करना होता है, नहीं तो सबसे उत्कृष्ठ जगहों पर भी खुद को सबसे उत्कृष्ठ समझने वाले तुम्हें ये साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे की तुम उनके और दुनिया के लिए कितने नकारा हो,
मुक्त पुरुष तो छोड दो मुझे तो आज तक कोई जीवित व्यक्ति भी ना मिला जिसे इंसान बोल सकूँ, ना मैं खुद हूँ, जानवर पैदा हुआ था इंसान बनने की कोशिश में लगा हूँ,
पर उनका क्या जो खुद को शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-पुरुष होने का दावा करते हैं, मुझे तो गली के कुत्ते उनसे ज्यादा इंसान लगे,
हर इंसान बस बेसुध होकर बेहोशी में अपने स्वार्थ का पीछा कर रहा है, तुम्हारे होने या ना होने से उसे कोई फर्क़ नहीं पडता,
हर इंसान अगर ईमानदारी से रोज सुबह उठकर अगर खुद से दो सवाल पूछे कि क्या मैं एक घटिया इंसान हूँ? और उससे भी ज्यादा जरूरी, क्या मुझे इंसान कहा जा सकता है?
चाहे वो खुद को कितना भी मुक्ति का साधक मानता हो, तो शायद दुनिया थोड़ी सी बेहतर जगह बन जाए,
मैंने खुद से ये ईमानदारी से पूछा और जवाब आया नहीं, अभी बहुत मेहनत करना बाकी है ।