Sunday, September 11, 2022

एक अतृप्त आत्मा के घर की तलाश

 

अपने खालीपन को भरने कहा जाऊँ घर-बाहर सब एक हैं, 

मैं एक अतृप्त आत्मा हूँ अपने घर की तलाश में, 

जो साथ है, क्या वो पास भी है?

क्या कोई भी साथ है,  पास है?

अतीत की गलतियों का बोझ,  रात की काली अंधेरी रात सी घनी मंडराती है, 

साये सी मेरे रूह को जकडे हुए,

पुरानी और नई के बीच एक खाई सी, 

सुबह की थकान और रात की घबराहट सी,

घर जैसा कहीं नही, 

साँसों में बेचैनी, आँखों में डर, जिस्म के अंदर बैठी मनहूसीयत सी यादें, 

यादें बेज्जती, जलीलयत और घटियेपन की, कुछ उनकी कुछ मेरी, 

विषय का फ़ेर बदला या वहीं खड़ा हूँ अभी, 

तन्हाई और ज्यादा तन्हाई सी, घुटन और घनी,

बेचैनी पहले से थोड़ी कम, पर कुछ समय की, 

अधूरापन जो कभी मिटता नही, संतुष्टि जो कभी मिलती नही,

 गुमनामी में सुकून का खिंचाव, 

दुःख दुःख दुःख,

अनंत दुःख, कभी ना मिटता दुःख, 

हर घड़ी साथ, 

मुस्कराहटों का बोझ, और अधूरी सी जीने की इच्छा, 

सत्य की ओर रुकते कदम,

हर दिन धुंधली सी आस के और कुछ पास, 

आशा जो निराशा में भी रह जाती साथ, छोड़ती ही नही, 

क्या चाहिए मुझे ?

एक खास का पास जहाँ पूरी तरह समर्पित होकर मिट सकुं, और वहीं एक घर,  जहां सूकून से सोता हूँ और मुस्कुराते हुए उठता हूँ.

Wednesday, September 7, 2022

खुद के खिलाफ अंदरूनी साजिश

 

नष्ट करना है खुद को पूरी तरह, 

वहीं मुक्ति सम्भव है, 

पकडा बैठा हूँ मैं खुद को बहुत जोर से, 

और अपने बंधनों को भी, 

और उनको भी जो बंधनों को मजबूत करते हैं ।

खुद के खिलाफ ही अंदरूनी साजिश करता हूँ,  और फिर चाहता हूँ खुद को खुद से आजाद करना, 

झूठ का एक पलीता और अज्ञान के ढांचे पर इतराता,  कमज़ोरी में फूंक मारता हूँ, 

कहां हूँ,  उस मंजिल से क्या बहुत दूर ? 

प्रेम है या नही?

क्या किसी से भी है?

क्या किसी पर भी भरोसा है?

खुद पर इतना क्यों है ? जब हारता ही आया हूँ ।

क्या है जो आजाद होने नही देता ?

क्या है जो भीतर उसी अंधकार,  गुमनामी में खिंचता है ?

क्या है?