कवि ऋषि हो जाना चाहता था,
पर वो जगत में भी कुछ हासिल करना चाहता था,
उसे अभी भी लगता था कि उसकी चाहत जगत में पुरी हो सकती है,
लोगों कि तारीफों से उसके अधूरेपन को थोड़ा मज़ा तो आ जाता था,
वो ये देख पाता था कि वो ख़ुद को अपनी चाहत का पीछा करने से रोक नहीं पाता,
पर हर बार अन्त में उसे मिलती वही पुरानी तड़प, बेचैनी, निराशा।
ऐसा होने पर वो फिर ऋषि हो जाना चाहता था,
वो ऐसे स्थान पर पहुच जाना चाहता था जहाँ कोई दुःख उसे छू ना पाए,
वो उस दिन की कल्पना करता जहाँ वो शुद्धता के चरम स्तर को प्राप्त कर चुका है,
वो कामनाओं से उपर उठ चुका है।
फिर इक दिन शीतल समीर किसी ख़ास की याद साथ ले आती है,
उससे मिलने के लिए कवि का मन मचल उठता है,
उस ख़ास की चाहत में वो दुनिया के श्रेष्ठ पैमानों को छुना चाहता है,
अपने शब्दों के जादू पर दुनिया की मोहर लगवाकर उस ख़ास को दिखाकर खुश करना चाहता है,
दुनिया शायद उसे मोहर दे भी दे,
वो ख़ास शायद उसे मिल भी जाए,
पर कवि अब भूल चुका है कि वो कभी ऋषि हो जाना चाहता था।