Saturday, September 9, 2023

मेरे जैसे लोग कहाँ हैं ?


 मेरे जैसे लोग कहाँ हैं ?

दुनिया विरान क्यों दिखती है, लोग अनजान क्यों लगते हैं? 

जो खास लगता है वो किसी और के ज्यादा पास क्यों लगता है,  है भी तो तकलीफ़ क्या है?

हर वक़्त  मन में जो आच्छादित रहता है वो अनंत से इतना दूर क्यों लगता है? 

संसारियों का संसार इतना सुना क्यों लगता है? 

कवि होना क्या है? ईमानदारी का बयान या ? 

संसार एक खंडहर लगता है, अनंत से काफी दूर हूँ, कोई खास पास नहीं, खुद से भी दुःखी हूँ, बीच मेँ कहीं एक अनवरत तड़प।  

वो नहीं बन सकता अब जो मुर्गे कि बोटी चबा के क्षणिक सूख पा लेता था, ना बुद्ध हूँ, 

ना मैं इंसान हूँ, ना राक्छस, यही विडंबना है। 

जिससे मुझे प्यार है उसे शायद प्यार से प्यार नहीं, उसे शायद मेरे, मेरे जैसा होने से भी ऐतराज है और मुझे इन सबसे ऐतराज है।  

मुझे कहीं फिट नहीं किया जा सकता, मैं खुद में एक खेमा हूँ।  

इसलिए हमेशा लगता है मेरे जैसे लोग कहाँ हैं, आजतक तो मिले नहीं, आगे शायद... शायद कोई ना हो मेरे जैसा, कोई है?

हर किसी को अपने जैसा ही चाहिए, ये तो अहम है।  

पर मुझे तो मेरे जैसा होने के कारण ठुकराया गया, उन्होंने अपने जैसों को इक्कठा किया। 

इसलिए मुझे लगा मेरे जैसे कुछ हों तो मैं भी एक खेमा बना लूँ,

और ऊँची दीवार बना कर अपने खेमे की घेराबंदी कर लूँ ,

पर मुझे मेरे जैसा कोई मिलता ही नही। 

                                  (Written in June 2023)

No comments:

Post a Comment