पर भीतर ही कहीं एक सत्य का प्रकाश भी था, जो उसके पैरों पर गिर जाना चाहता था, जो उस अनमोल रत्न का माथा चूम लेना चाहता था.
जो उसका हाथ थाम कर समुद्र की लहरों के थपेड़ों सी उसकी बातों को प्रेम जानकर झेल जाना चाहता था. जो अपनी कमजोरियों के विद्रोह का हमेशा के लिए अंत कर देना चाहता था.
पर क्या वो ऐसा कर पाया ?
क्या उसने 'सत्य' को खुद मे जो खुदा जैसा कुछ नही था उसे नष्ट करने दिया ?
कितनी बार और सत्य को मेरे अन्दर के दानव को नष्ट करने आना होगा?
कब सीखूंगा मैं?
वो समय कब आयेगा, जब खुद के अन्दर खुद जैसा कुछ ना बचे, जब मैं औऱ वो एक हो जाये ?
तबतक क्या सत्य धैर्य रख पाएगा, क्या वो बार बार आयेगा मुझे ऊंचा उठाने, मुझे मुझसे बचाने, या अब वो थक चुका है, मेरा वक़्त पूरा हो चुका है, उसे और जरूरी काम है, उसकी जरूरत और कहीं है ?
मेरी सबसे बड़ी हार होगी अगर मेरे कारण उसके अंदर का सत्य जरा भी धूमिल हो जाए. उस वक़्त की जरा भी भनक होने पे मैं सागर में समा जाना चाहूँगा.
अगर मेरे आत्मबलिदान से वो सत्य के एक कदम भी करीब पहुँचता है तो मुझे वो कबूल होगा.
शरीर का मोह किसे नही होता पर वो शरीर जो खुद से ज्यादा सत्य के करीब खड़े एक साधक के लिए बाधा बने उसे मिट ही जाना चाहिए.
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