अपने खालीपन को भरने कहा जाऊँ घर-बाहर सब एक हैं,
मैं एक अतृप्त आत्मा हूँ अपने घर की तलाश में,
जो साथ है, क्या वो पास भी है?
क्या कोई भी साथ है, पास है?
अतीत की गलतियों का बोझ, रात की काली अंधेरी रात सी घनी मंडराती है,
साये सी मेरे रूह को जकडे हुए,
पुरानी और नई के बीच एक खाई सी,
सुबह की थकान और रात की घबराहट सी,
घर जैसा कहीं नही,
साँसों में बेचैनी, आँखों में डर, जिस्म के अंदर बैठी मनहूसीयत सी यादें,
यादें बेज्जती, जलीलयत और घटियेपन की, कुछ उनकी कुछ मेरी,
विषय का फ़ेर बदला या वहीं खड़ा हूँ अभी,
तन्हाई और ज्यादा तन्हाई सी, घुटन और घनी,
बेचैनी पहले से थोड़ी कम, पर कुछ समय की,
अधूरापन जो कभी मिटता नही, संतुष्टि जो कभी मिलती नही,
गुमनामी में सुकून का खिंचाव,
दुःख दुःख दुःख,
अनंत दुःख, कभी ना मिटता दुःख,
हर घड़ी साथ,
मुस्कराहटों का बोझ, और अधूरी सी जीने की इच्छा,
सत्य की ओर रुकते कदम,
हर दिन धुंधली सी आस के और कुछ पास,
आशा जो निराशा में भी रह जाती साथ, छोड़ती ही नही,
क्या चाहिए मुझे ?
एक खास का पास जहाँ पूरी तरह समर्पित होकर मिट सकुं, और वहीं एक घर, जहां सूकून से सोता हूँ और मुस्कुराते हुए उठता हूँ.
Akhari do panktiya me saar hai.. wah wah
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