नष्ट करना है खुद को पूरी तरह,
वहीं मुक्ति सम्भव है,
पकडा बैठा हूँ मैं खुद को बहुत जोर से,
और अपने बंधनों को भी,
और उनको भी जो बंधनों को मजबूत करते हैं ।
खुद के खिलाफ ही अंदरूनी साजिश करता हूँ, और फिर चाहता हूँ खुद को खुद से आजाद करना,
झूठ का एक पलीता और अज्ञान के ढांचे पर इतराता, कमज़ोरी में फूंक मारता हूँ,
कहां हूँ, उस मंजिल से क्या बहुत दूर ?
प्रेम है या नही?
क्या किसी से भी है?
क्या किसी पर भी भरोसा है?
खुद पर इतना क्यों है ? जब हारता ही आया हूँ ।
क्या है जो आजाद होने नही देता ?
क्या है जो भीतर उसी अंधकार, गुमनामी में खिंचता है ?
क्या है?
No comments:
Post a Comment